धुँधलाए अक्षर-अक्षर
विश्वास के
भोजपत्र पर छंद
धुले उल्लास के
नींव न टिकी
इरादों की कोरी-कोरी
खींच ली गई है
पर्दों की फिर डोरी
बिखर गए हैं
बावन पत्ते ताश के।
लहू-लहू सुर्खाब
देखती है माटी
तोड़ लेखनी
पूज रहा है
जग लाठी
खिले-खिले गुलमुहर
झर गए हास के।
दूरी और अपरिचय में
जकड़ी बाँहें
चटकी नहीं गुलाबों की
मधुमय चाहें
रहे अलक्षित
यक्ष प्रश्न इतिहास के
बदल गए प्रतिमान
गुनाहों की आँधी
मैली खादी
बचा न कोई फरियादी
बढ़ते गए दिवस
अपने बनवास के।